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कविता

चीजें पक रही हैं

योगेंद्र दत्त शर्मा


उग रहा भीतर नवाकुंर एक
चीजें पक रही हैं।

मथ अँधेरे की शिला को
एक सूर्योदय हुआ है
हर धुंधलके, हर तरह की
कालिमा का क्षय हुआ है
कर रहीं किरणें सहज अभिषेक
चीजें पक रही हैं।

अनकही, बिखरी व्यथा के
सूत्र फिर जुड़ने लगे हैं
एक निश्चित दिशा में
संदर्भ सब मुड़ने लगे हैं
अब नहीं संभव कहीं व्यतिरेक
चीजें पक रही हैं।

कुछ प्रसंगों, कल्पनाओं से
कथा आकार लेगी
जुड़ नई संवेदनाओं से
महागाथा बनेगी
ताप में अपने स्वयं को सेंक
चीजें पक रहीं हैं।

थी बहुत लंबी प्रतीक्षा
तब कहीं आया सृजन क्षण
माँगता आधा अधूरा-सा नहीं
पूरा समर्पण
चाह दृढ़ संकल्प भी है नेक
चीजें पक रही हैं।
 


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